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________________ १६८ वृहत् पूजा संग्रह जन सेविये । आंकणी ॥ ए मतिज्ञान सदा नमिये, निज पाप सकल दूरे गमिये, मम शुद्ध करी निज गुण रमिये ॥ म० ॥ १ ॥ व्यंजन कर अवग्रह इम जाणो, चउ भेद करी मनमें आणो, इम भाखे श्रीजिन जगभाणो ॥ म० ॥२॥ अरथे करी भेद जिणंद आखे, पण इन्द्रिय मनकर प्रभु दाखे, मुनि मानस ते दिल में राखे ॥ म० ॥ ३ ॥ वलि षट् विध भेद ईहा कहिये, पट् भेद अपाय करी लहिये, षटू विध धारण भवि सरदहिये ॥ म० ॥ ४ ॥ इम भेद अठाइस भवि धारो, इम भाखे जिनवर सुखकारो, निश्चय व्यवहार ते अवधारो ॥ म० ॥५॥ वलि रतन जडित कंचन कलशे, भवि पूजन कर तन मन उलसे, चिदरूप अनूप सदा विलसे ॥म० ॥६॥ ए ज्ञान दिवाकर सम कहिये, इम सुमति कहे दिलमें गहिये, एज्ञानथी अनुपम सुख लहिये । म० ॥७॥ ॐ हीं श्री परमात्मने श्रीमतिज्ञानधारकेभ्यो अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा ॥१॥ || द्वितीय श्रु तज्ञान पूजा ॥ ॥दोहा॥ श्रुतधारक पूजन करो, भाव धरी मनरंग। उपगारी सिर सेहरो, भाखे जिन उछरंग ॥
SR No.034089
Book TitleBruhat Pooja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshanashreeji
PublisherGyanchand Lunavat
Publication Year1981
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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