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वृहत् पूजा-संग्रह
गुणक्षीर || पा०||३|| प्रातिहार्य अतिशय जिन संपद भयो अनुकूल समीर । दे उपदेश भविक प्रतिबोधत, वचनातिशय गंभीर || पा० ॥ ४ ॥ लोकालोक प्रकाश परमगुरु, कहि न सके मति सीर । पाठक विजयविमल परमातम, प्रभुता परम सुधीर || पा० ||५|| ॐ ह्रीं श्री परम० अ० ज० श्री केवलज्ञानकल्याणके अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा || बासक्षेप चढ़ावें
|| पंचम निर्वाण कल्याणक पूजा || इन्द्रादिक सुर सब मिली, तीन भुवन सिरदार । सब दरसी सर्वज्ञनी, महिमा करे अपार || (राग - वसन्त, चाल - अतुल विमल मिल्या अखंड गुणे भिल्या )
अतुल विमल प्रभुता प्रभुकी लख, चौसठ इन्द्र उच्छव धरे रे । चार प्रकार के सुर सब मिलकर समवशरण रचना करे ए ॥ अ० ||१|| रजत कनकवर रत्न प्रकारे, कनक रत्नमणि कंगुरे ए । वृक्षअशोक सिंहासन शोभित, तीन छत्र चामर दुरे ए ॥ अ० || २ || दुदुभि प्रमुख श्रवणसुख दायक, गहिर सुरे वाजित्र घुरे ए । जानुप्रमाण पुष्पधन वरसत, जलज थलज विकसित सुरे ए ॥ अ० ||३||