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________________ १०८ वृहत् पूजा-संग्रह ॥ दोहा ॥ अरिहंतादिक पद सदा, भजिये तप करि शुद्ध । अति निर्मल शुभ योगता, करिके तसु गुण लुद्ध ॥ विमल पीठ त्रिक तदुपरे, ठविये जिनवर वीश । पूजन उपकरण मेलि करी, अरचीजे सुजगोश ।। एक एक ए पद तणो, द्रव्य पूज परकार । पंच अष्टविध जाणिये, सत्तर इगविस सार ।। अष्ट जातिना कलश करि, विमल जले भरिपूर । पूजो भवियण सहु मुदा, होय सकल दुख दूर ॥ सोहे सहु परमेष्ठिमें, जिनवरपद अभिराम । वेद४ निक्षेपे समरिये, वधते शुभ परिणाम || ॥ राग देशाख ॥ (चाल-पूर्वमुखसावनं, ए देशी) सकल जगनायकं, परमपद दायकं, लायकं जिनपदं विमलभानं । चतुरधिकतीस३४ अतिशय अमल बारगुण१२ वचन पणतीस३५ गुणमणिनिधानं ॥ अइयो ॥ १ ॥ सुखकरण जिन चरण पद्मसेवित सदा, भमर सुर असुर नर हृदयहारी। एह जिनवर तणी आण पूरण सदा, दाम जिम जगतजन शिरसि धारी ॥ अइयो ॥ २॥ जिनप
SR No.034089
Book TitleBruhat Pooja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshanashreeji
PublisherGyanchand Lunavat
Publication Year1981
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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