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दूसरा प्रकरण ।
ওও
व्यवहार होता है और घट-रूपी उपाधि के नाश होने से घटाकाश में नाश का व्यवहार होता है, वास्तव में आकाश की न तो उत्पत्ति होती है और न नाश होता है, वैसे ही शरीरस्थ आत्मा की भी न उत्पत्ति होती है, और न नाश होता है । ज्ञानवान् को बाधितानुवृत्ति करके जगत् की प्रतीति भी होती है, तब भी उसकी कोई हानि नहीं है ।। २५ ।।
इति श्रीअष्टावक्रगीतायां द्वितीयं प्रकरणं समाप्तम् ।
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