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________________ ७६ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० लगा, परन्तु वह पुरुष जल की इच्छा करके वहाँ न गया, क्योंकि उसको निश्चय हो गया कि यह जल नहीं है, दूरत्व दोष से और किरण के सम्बन्ध से मुझको जल दिखाई देता है। पुरुष के यथार्थ ज्ञान करके बाधित हए पर भी जलज्ञान की जो पुनः अनुवृत्ति अर्थात् प्रतीति है, उसी का नाम बाधिता अनुवृत्ति है। दाष्टात । आत्मा के अज्ञान करके जो जगत् सत्य की तरह प्रतीत होता था, उसके सत्यवत् ज्ञान का बाध आत्मा के ज्ञान से भी हो गया, तथापि उसकी अनुवृत्ति अर्थात् पुन: जो उसकी प्रतीति विद्वान् को होती है, वही बाधिता अनुवृत्ति कही जाती है। वह प्रतीति विद्वान् की कुछ हानि नहीं कर सकती है, क्योंकि विद्वान् उसको असत्य जानकर उसमें फिर आसक्ति नहीं करता है, किंतु मिथ्या जानकर अपने आत्मानन्द में ही मग्न रहता है। जनकजी कहते हैं कि क्रिया से रहित, निर्विकार, आत्मा-रूपी महान समुद्र में जीव-रूपी वीचियाँ अर्थात अनेक तरङ्गे उत्पन्न होती हैं और परस्पर अध्यास से वे जीव आपस में मारपीट करते हैं, खेलते हैं, लड़ते हैं। जैसे स्वप्ने के मारे जीव स्वप्न में परस्पर विरोधादिकों को करते हैं और जब उनके अविद्यादि का नाश हो जाता है, तब फिर मेरे असली स्वरूप में ही लय हो जाते हैं। फिर अविद्यादिकों करके उत्पन्न होते हैं, फिर लय होते हैं और जैसे घट-रूप उपाधि की उत्पत्ति से घटाकाश में उत्पत्ति
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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