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________________ दूसरा प्रकरण । उत्तर--मैं चैतन्य-स्वरूप अहंकार का भी साक्षी अकर्ता, अभोक्ता हूँ। प्रश्न--जब तुम खान पान आदिक सब व्यवहारों को करते हो, तो तुम अकर्ता कैसे हो ? उत्तर--अज्ञानी पुरुषों की दृष्टि में मैं व्यवहारों का कर्ता प्रतीत होता हूँ, परन्तु वास्तव में मैं कर्ता नहीं हूँ। क्योंकि कर्तृत्व भोक्तत्वपना अहंकारी का धर्म है, मुझ आत्मा के ये धर्म नहीं हैं । और ऐसा भी कहा हैनिद्राभिक्षे स्नानशौचे नेच्छामि न करोमि च । द्रष्टारश्चेत्कल्पयन्ति कि मे स्यादन्यकल्पनात् ॥ १॥ अर्थात् सोना-जागना, भिक्षा माँगना, स्नान करना, पवित्र रहना, इन सबकी मैं इच्छा नहीं करता हूँ, और न मैं इनको करता हूँ। यदि कोई देखनेवाला मेरे में ऐसी कल्पना करता है कि मैं इनको करता हूँ, तो दूसरे की कल्पना करने से मेरी क्या हानि हो सकती है ॥ १ ॥ अब इस विषे दृष्टांत कहते हैं गुंजपुंजादि दोत नान्यारोपितवह्निना। नान्यारोपितसंसारधर्मानेवमहं भजे ॥२॥ अर्थात् जाड़े के दिनों में वन विषे जब कि बंदरों को सरदी लगती है, तब वह घुघची का ढेर लगाकर उसके पास मिल करके बैठ जाते हैं और घुघचियों के, याने गुंजा के, ढेर में अग्नि की मिथ्या कल्पना करते हैं। कारण यह है कि मिलकर बैठने से उनमें गरमी उत्पन्न होती है, पर वे
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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