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________________ तथा वैसा ही आत्मविनिर्गतम् =आत्म-विष्टि दूसरा प्रकरण विश्वम् = विश्व आत्मनः आत्मा से यद्वत् = जैसे भिन्नम् =भिन्न नहीं है | पटः कपड़ा तन्तुमात्रः = तंतुमात्र एव = ही भवेत् = होता है तद्वत् = वैसे ही भावार्थ । दृष्टांत - जैसे तरंग और फेन जल से भिन्न नहीं हैं, क्योंकि जल ही उन सबका उपादान कारण है, वैसे ही यह विश्व आत्मा से उत्पन्न है अर्थात् इसका उपादान कारण आत्मा ही है । इस कारण ऐसा जो जगत् है, वह भी आत्मा से भिन्न नहीं है । जैसे तरंग बुद्बुदादि में जल अनुगत हैवैसे स्वच्छ चैतन्य भी सम्पूर्ण विश्व में अनुगत है । जैसे कल्पित सर्प अपने अधिष्ठानभूत रज्जू से भिन्न नहीं है, किन्तु रज्जु-रूप ही है - वैसे कल्पित जगत् भी अधिष्ठानभूत चेतन से भिन्न नहीं है ॥ ४॥ 1 मूलम् । तन्तुमात्रो भवेदेव पटो यद्वद्विचारतः । आत्मतन्मात्रमेवेदं तद्वद्विश्वं विचारितम् ॥ ५॥ पदच्छेदः । ४७ तन्तुमात्रः, भवेत्, एव, पटः, यद्वत्, विचारता, आत्मतन्मात्रम्, एव, इदम्, तद्वत्, विश्वम्, विचारितम् ॥ शब्दार्थ | अन्वयः । अन्वयः । शब्दार्थ | विचारतः = विचार से इदम् = यह विश्वम् = संसार आत्मतन्मात्रम्=आत्मसत्तामात्र एव हो विचारितम् = प्रतीत होता है ||
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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