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________________ दूसरा प्रकरण । ४५ दोनों विनाशी हैं, क्योंकि एक हालत में नहीं रहते हैं, इसी से सारा जगत् मिथ्या सिद्ध होता है । यह जगत् परब्रह्म के अस्ति, भाति और प्रिय इन तीनों अंशों करके ही सत्यवत् प्रतीत होता है । यदि इन तीनों अंशों को हरएक पदार्थ से पृथक् कर दिया जाय, तब जगत् का कोई भी पदार्थ सत्यवत् भान नहीं हो सकता है । इसी से सिद्ध होता है कि जगत् तीनों कालों में मिथ्या है और ब्रह्म ही तीनों कालों में सत्य है । इस युक्ति सहित अनुभव करके जनकजी कहते हैं कि जितना दृश्य जगत् है, वह मेरे में ही अध्यस्त अर्थात् कल्पित है, क्योंकि परमार्थ दृष्टि से कोई भी देहादिक मेरे में नहीं है । जैसे आकाश में नीलता; मरुस्थल में जल; बन्ध्या का पुत्र; शश के शृङ्ग; ये सब तीनों कालों में नहीं हैं, वैसे ही जगत् भी वास्तव में तीनों कालों में नहीं है, और न कोई मेरे देहादिक है । मैं माया और उसके कार्य से परे एवं ज्ञान स्वरूप हूँ ।। २॥ मूलम् । सशरीरमहो विश्वं परित्यज्य मयाऽऽधुना । कुतश्चित्कौशलादेव परमात्मा विलोक्यते ॥ ३॥ पदच्छेदः । सशरीरम्, अहो, विश्वम्, परित्यज्य मया, अधुना, कुतश्चित्, कौशलात् एव, परमात्मा, विलोक्यते ॥ अन्वयः । शब्दार्थ | अन्वयः । अहो = आश्चर्य है कि सशरीरम् = शरीर सहित विश्वम् = विश्व को परित्यज्य = शब्दार्थ | त्याग करके अर्थात् अपने से पृथक् समझ कर
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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