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________________ ४० अष्टावक्र-गीता भा० टो० स० अस्मिन् ! इस शरीर में अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः। शब्दार्थ। यथा जैसे भासते-भासता है एव-निश्चय करके तथा एव-वैसे ही आदर्श-] दर्पण के मध्य में स्थित | मध्यस्थे Jहुए शरीरे । इस शरीर में रूपे प्रतिबिम्ब में अन्तः परितः=भीतर और बाहर से सः वह शरीर | परमेश्वरः परमेश्वर भासता है ॥ भावार्थ । हे जनक ! जैसे दर्पण में प्रतिबिम्ब जो शरीरादिक हैं, उनके अन्तर, मध्य और बाहर, चारों तरफ दर्पण व्याप्त हो करके वर्तता है अर्थात वह प्रतिबिम्ब अध्यस्त है, अर्थात दर्पण में देखने-मात्र का है, स्वरूप से सत्य नहीं है, वैसे ही अपने आत्मा में अध्यस्त जो शरीर है, उसके भीतर, बाहर, मध्य और सर्व ओर चेतन आत्मा ही व्याप्त करके स्थित है । हे राजन् ! कल्पित पदार्थ की अधिष्ठान से भिन्न अपनी सत्ता कुछ भी नहीं होती है, किन्तु अधिष्ठान की सत्ता करके वह सत्यवत् प्रतीत होता है-जैसे शूक्ति में रजत, और दर्पण में प्रतिबिम्ब प्रतीत होता है, वैसे शरीरादिक भी आत्मा में उसी की सत्ता करके सत्य के सदृश प्रतीत होते हैं, वास्तव में ये भी सत्य नहीं हैं, किन्तु मिथ्या हैं ।। १९ ।। दर्पण के दृष्टांत से कदाचित् जनक को ऐसा भ्रम हो जावे कि जैसे दर्पण परिच्छिन्न है, वैसे ही आत्मा भी परिच्छिन्न होगा, इस भ्रम के दूर करने के लिये ऋषिजी दूसरा दृष्टांत देते हैं।
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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