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________________ पहला प्रकरण । इतने में नीचे गिर पड़ा और उसकी टाँग टूट गई और हाय, हाय करके रोने लगा। तब इधर-उधर से पड़ोस के लोग आकर पूछने लगे कि क्या हुआ, कैसे टाँग तेरी टूट गई। तब बनिये ने कहा कि बिना हुए, मिथ्या लड़के ने मेरी टाँग तोड़ दी। यदि सच्चा होता, तब न जाने क्या अनर्थ करता, वैसे ही साकार जितने स्त्री पुरुषादिक विषय हैं, वे सब दुःख के हेतु हैं, ये विष के तुल्य त्यागने योग्य हैं। हे जनक ! जो निराकार आत्मतत्त्व है, वह निश्चल है और नित्य है । श्रुति भी ऐसा ही कहती है "नित्यं विज्ञानमानन्दं ब्रह्म" अर्थात् आत्मा नित्य, विज्ञान और आनन्दस्वरूप है, उसी आत्म-तत्त्व में स्थिरता को पाकर हे जनक ! फिर तू जन्म-मरण रूपी संसार को नहीं प्राप्त होवेगा ।। १८ ॥ ___ अब अष्टावक्रजी वर्णाश्रमी धर्मवाले स्थूल शरीर से और धर्माऽऽधर्म-रूपी संस्कारवाले लिंग-शरीर से विलक्षण, परिपूर्ण चैतन्य-स्वरूप आत्मा को दृष्टान्त के सहित कहते हैं । मूलम् । यथैवादर्शमध्यस्थे रूपेन्तः परितस्तु सः। . तथैवास्मिञ्छरीरेऽन्तः परितः परमेश्वरः॥ १९ ॥ पदच्छेदः । यथा, एव, आदर्शमध्यस्थे, रूपे, अन्तः, परितः, तु, सः, तथा, एव, अस्मिन् शरीरे, अन्तः, परितः, परमेश्वरः ।।
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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