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________________ ३७४ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः। शब्दार्थ ज्ञानी ज्ञानी च और वन्द्यमानः स्तुति किया हुआ मरणे मरण में न नहीं न व कभी नहीं प्रीयते प्रसन्न होता है उद्विजति-उद्वेग करता है च और च और निन्द्यमानः निन्दा किया हुआ जीवने जीवन में न नहीं न-नहीं कुप्यति कोप करता है । अभिनन्दति हर्ष करता है । भावार्थ । जीवन्मुक्त ज्ञानी इतर पुरुषों द्वारा स्तुति को प्राप्त हुआ भी हर्ष को नहीं प्राप्त होता है, और इतर पुरुषों द्वारा निन्दा किया हुआ भी क्रोध को नहीं प्राप्त होता है; और • मृत्यु के आने पर भी वह भय को भी नहीं प्राप्त होता है। क्योंकि उसकी दृष्टि में आत्मा नित्य है; जन्म-मरण कोई वस्तु नहीं है । उसको अधिक जीने की न इच्छा है, न मरने का शोक है, वह सदा एकरस है ।। ९९ ॥ मूलम् । न धावति जनाकीर्णं नारण्यमुपशान्तधीः । यथा तथा यत्र तत्र सम एवावतिष्ठते ॥ १०० ॥ पदच्छेदः । न, धावति, जनाकीर्णम्, न, अरण्यम्, उपशान्तधीः, यथा, तथा, यत्र, तत्र, समः, एव, अवतिष्ठते ।।
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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