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________________ ३४८ अन्वयः । अष्टावक्र गीता भा० टी० स० शब्दार्थ | च=और अनन्तरूपेण = अनन्त रूप से प्रकृतिम् = माया को न पश्यतः- नहीं देखते हुए स्फुरतः = { = कहाँ बन्धः बन्धन है प्रकाशमान अर्थात् ज्ञान को बुद्धिपर्यन्त = संसारे :{ मायामात्रम्= भावार्थ । जो चिद्रूप आत्मा में कार्य के सहित माया को नहीं देखता है, उसकी दृष्टि में बन्ध कहाँ है ? मोक्ष कहाँ है ? और हर्ष - विषाद कहाँ है ? ।। ७२ ।। अन्वयः । मूलम् । बुद्धिपर्यन्त संसारे मायामात्रं विवर्त्तते । निर्ममो निरहङ्कारो निष्कामः शोभते बुधः ॥ ७३ ॥ पदच्छेदः । { क्व कहाँ मोक्षः=मोक्ष है वा=और बुद्धिपर्यन्तसंसारे, मायामात्रम्, विवर्त्तते निर्ममः, निरहङ्कारः, निष्कामः, शोभते, बुधः । अन्वयः । शब्दार्थ | अन्वयः । बुद्धिपर्यन्त संसार में क्व= कहाँ हर्षः हर्ष है च=और माया - विशिष्ट चैतन्य क्व= कहाँ विषादता शोक है | शब्दार्थ | शब्दार्थ | जगत् = जगत्-भाव को विवर्तते कल्पित करता है बुधः ज्ञानी पुरुष
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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