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________________ अष्टावक्र गीता भा० टी० स० भावार्थ | मूढ़ पुरुष के इन्द्रियों के व्यापारों की निवृत्ति तो लोकदृष्टि करके अवश्य प्रतीत होती है, परन्तु वह निवृत्ति प्रवृत्ति ही है । क्योंकि उसके अहंकारादिक निवृत्ति नहीं हुए हैं और ज्ञानवान् की लोक-दृष्टि करके इन्द्रियों की प्रवृत्ति प्रतीत भी होती है, तो भी वह निवृत्ति रूप ही है, और मुक्ति-रूपी फल को देनेवाली है । क्योंकि उसमें अभिमान का अभाव है ॥ ६१ ॥ ३३८ मूलम् । परिग्रहेषु वैराग्यं प्रायो मूढस्य दृश्यते । दे विगलिताशस्य क्व रागः क्व विरागता ॥ ६२ ॥ पदच्छेदः । परिग्रहेषु, वैराग्यम्, प्रायः, मूढस्य, दृश्यते, देहे, विगलिताशस्य, क्व, रागः, क्व, विरागता || शब्दार्थ | अन्वयः । अन्वयः । मूढस्य = ज्ञानी का वैराग्यम् = वैराग्य प्रायः = विशेष करके परिग्रहेषु = गृह आदि में दृश्यते = देखा जाता है परन्तु परन्तु देहे देह में . विगलिताशस्य = शब्दार्थ | - गलित होगई है। आशा जिसकी . ऐसे ज्ञानी को क्व = कहाँ राग := राग है च=और क्व= कहाँ विरागता = वैराग्य है ॥
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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