SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 344
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अठारहवां प्रकरण । ३३७ स्वभावात् । स्वभाव से अन्वयः। शब्दार्थ । । अन्वयः । शब्दार्थ। यस्य-जिस नम्नहीं व्यवहारिण-व्यवहार करनेवाले एब-निश्चय करके सः वह ज्ञानिन्-ज्ञानी को गतक्लेश-क्लेश-रहित ज्ञानी आत्मज्ञान के महाह्नद इव-समुद्रवत् अक्षोभ्य-क्षोभ-रहित लोकवत्-लोक की तरह सुशोभते शोभायमान होता है । भावार्थ । . ज्ञानवान् व्यवहार को करता हुआ भी अज्ञानी पुरुषों की तरह खेद को नहीं प्राप्त होता है । वह महाह्नद की तरह क्षोभ से रहित शोभा को प्राप्त होता है ।। ६० ॥ मूलम्। निवृत्तिरपि मूढस्य प्रवृत्तिरुपजायते । प्रवृत्तिरपि धीरस्य निवृत्तिफलदायिनी ॥ ६१ ॥ पदच्छेदः । निवृत्तिः, अपि, मूढस्य, प्रवृत्तिः, उपजायते, प्रवृत्तिः, अपि, धीरस्य, निवृत्तिफलदायिनी ॥ अन्वयः। __ शब्दार्थ । | अन्वयः । शब्दार्थ। मूढस्य-मूढ़ की च-और निवृत्तिः निवृत्ति धीरस्य ज्ञानी की अपि भी प्रवृत्तिः प्रवृत्ति अपि भी प्रवृत्ति प्रवृत्ति-रूप निवृत्तिफल-_निवृत्त के फल उपजायते-होती है दायिनी । को देनेवाली है।
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy