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________________ अष्टावक्र गीता भा० टी० स० ___ अर्थात् मैं ब्राह्मण हूँ, मैं क्षत्रिय हूँ, मैं वैश्य हूँ, मैं शूद्र हूँ, जैसा-जैसा जिसको अभिमान होता है, वैसे-वैसे वह कर्मों को करके, उनके फलों का भोग करता है और एक जन्म से दूसरे जन्म को प्राप्त होता है, और वही बन्धायमान कहा जाता है। और जिसको ऐसा अनुभव है नाहं ब्राह्मणः, न क्षत्रियः। अर्थात् न मैं ब्राह्मण हूँ, न क्षत्रिय हूँ, न वैश्य हूँ, न शूद्र हूँ, किन्तुशुद्धोऽहम्, निरजनोऽहम्, निराकारोऽहम्, निर्विकल्पोऽहम् । - अर्थात् मैं शुद्ध हूँ, माया-मल से रहित हूँ, आकार से भी रहित हूँ, विकल्प से भी रहित हूँ और नित्य-मुक्त हूँ। बंध और मोक्ष ये सब मन के धर्म हैं। मुझमें ये सब तीनों काल में नहीं हैं, किन्तु मैं सबका साक्षी हूँ, ऐसे अभिमानवाला पुरुष नित्य-मुक्त है। इसी वार्ता को अन्यत्र भी कहा है देहाभिमानाद्यत्पापं नतद्गोवधकोटिभिः । प्रायश्चित्ताद्भवेच्छुद्धिनणां गोवधकारिणाम् ॥१॥ अर्थात् जो देह के अभिमान से पुरुषों को पाप होता है, वह पाप करोड़ों गौओं के वध करने से भी नहीं होता है, क्योंकि करोड़ों गौओं के वध करनेवाले की शुद्धि के लिए शास्त्र में प्रायश्चित लिखा है, अर्थात् प्रायश्चित्त करके करोड़ों गौओं का वध करने वाला भी शुद्ध हो सकता है, परन्तु देहाभिमानी की शूद्धि के लिए शास्त्र में कोई भी प्रायश्चित्त नहीं लिखा है, इसी वास्ते जाति, वर्ण आदि जो देह के धर्म हैं, उन धर्मों को जो आत्मा में मानते हैं, वे ही
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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