SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९२ अष्टावक्र गीता भा० टी० स० I को करता है । जिसको कोई विक्षेप नहीं रहा है, वह विक्षेप के दूर करने के लिये चित्त का निरोध भी नहीं करता है ।। १७ ।। मूलम् । धीरो लोकविपर्यस्तो वर्त्तमानोऽपि लोकवत् । न समाधि न विक्षेपं न लेपं स्वस्य षश्यति ॥ १८ ॥ पदच्छेदः । धीरः, लाकविपर्यस्तः, वर्तमानः, अति, लोकवत्, न, समाधिम् न, विक्षेपम्, न लेपम्, स्वस्य, पश्यति ॥ " अन्वयः । शब्दार्थ | शब्दार्थ | धीरः ज्ञानी पुरुष लॊकविपर्यस्तः= { लोक में विक्षेपहुआ च=और लोकवत् = लोक की तरह वर्त्तमानः अपि वर्त्तता हुआ भी नन स्वस्य अपने अन्वयः । समाधिम् = समाधि को नन्न विक्षेपम् - विक्षेपको च = और न=न लेपम् =न बंधन को पश्यति देखता है | भावार्थ । जो विद्वान् है, वह लोकों में विक्षेप से रहित होकर प्रारब्धवशात् लोकों में रह करके वाधिता अनुवृत्ति करके व्यवहार को करता भी अपने आत्मा में निर्लेप स्थित है । क्योंकि न वह समाधि करता है, और न विक्षेप को प्राप्त होता है ॥ १८ ॥
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy