SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२ आनन्द परमानन्द अष्टावक्र गीता भा० टी० स० सः वही =आनन्दपरमानन्द बोध: बोध रूप त्वम् = तू है ( अतएव तू ) सुखम् = सुख पूर्वक चर=विचर ॥ भावार्थ । अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे राजन् ! जिस ब्रह्म-आत्मा में यह जगत् रज्जु में सर्प की तरह कल्पित प्रतीत होता है, वह आत्मा आनन्द-स्वरूप है । जैसे रज्जु के अज्ञान करके, मंद अंधकार में रज्जु ही सर्प- रूप प्रतीत होती है, या रज्जु में सर्प प्रतीत होता है । वास्तव में न तो रज्जु सर्प-रूप है और न रज्जु में सर्प है । और न रज्जु में सर्प पूर्व था और न आगे होवेगा और न वर्तमान काल में है, किन्तु रज्जु के अज्ञान करके और मन्द अन्धकार आदि सहकारी कारणों द्वारा पुरुष को भ्रान्ति से रज्जु में सर्प प्रतीत होता है, और उसी मिथ्या - सर्प को देख करके पुरुष भागता, गिर पड़ता और डरता है । जब कोई रज्जु का ज्ञाता उससे कहता है कि यह सर्प नहीं है, किन्तु रज्जु है, इसको तू क्यों डरता है, तब उसके भ्रम और भय आदि सब दूर हो जाते हैं । वैसे ही आत्मा के स्वरूप के अज्ञान करके पुरुष को जगत् भासता है, एवं जन्म-मरण के भय आदिक भी भासते हैं । जब ब्रह्मवित् गुरु उपदेश करता है कि तू ही ब्रह्म है, तेरे को अपने स्वरूप के अज्ञान के कारण यह जगत् प्रतीत हो रहा है और वास्तव में यह जगत् मिथ्या है एवं तीनों कालों में तेरे लिये नहीं है । जैसे निद्रा-रूपी दोष करके पुरुष स्वप्न में अनेक प्रकार के सिंह - व्याघ्रादिकों को रचता है, और आप ही
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy