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________________ अन्वयः। २६२ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० शब्दार्थ । | अन्वयः । शब्दार्थ न जागति-न जागता है अहो आश्चर्य है कि न निद्राति-न सोता है क्वापि-कैसी न उन्मीलति-न पलक को खोलता है परदशा-उत्कृष्ट दशा च-और मुक्तचेतसा ज्ञानी की न मोलति-न पलक को बंद करता है। वर्तते वर्तती है । भावार्थ। हे शिष्य ! विद्वान् ऐसे दिन विष जागता नहीं है। क्योंकि जा जागता है, वह नेत्र के पलकों को खोले रहता है। अर्थात बाह्य विषयों को देखता है, और स्मरण भी करता है। ज्ञानी बाह्य विषयों को न देखता है, और न स्मरण करता है। इस वास्ते वह जागता नहीं है, और ज्ञानवान् सोता भी नहीं है। क्योंकि जो सोता है, वह नेत्रों के पलकों को बंद कर लेता है। और इसी कारण तब वह बाहर के किसी पदार्थ को नहीं देखता है, सो विद्वान् ऐसा नहीं करता है, किन्तु बाहर के सब पदार्थों को ब्रह्म-रूप करके देखता है। प्रश्न-ऐसे ज्ञानवान् की कौन दशा होती है ? उत्तर-अहो, बड़ा आश्चर्य है कि शान्तचित्तवाला कोई ज्ञानी एक अलौकिक उत्कृष्ट तुरीय अवस्था को प्राप्त होता है, उस दशा का वर्णन चर्ममुख से बाहर है ।। १० ॥ मूलम् । सर्वत्र दृश्यते स्वस्थः सर्वत्र विमलाशयः । समस्तवासनामुक्तो मुक्तः सर्वत्र राजते ॥ ११॥
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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