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________________ पन्द्रहवां प्रकरण । २३३ पदच्छेदः । तव, एव, अज्ञानतः, विश्वम्, त्वम्, एकः, परमार्थतः, त्वत्तः, अन्यः, न, अस्ति, संसारी, न, असंसारी, च, कश्चन ।। अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः। शब्दार्थ । तव एव-तेरे ही त्वम्-तू अज्ञानतः अज्ञान से एक:-एक है विश्वम्-विश्व है अतः इसलिये अन्यः दूसरा त्वत्तः तुझसे कश्चन-कोई अस्ति है न संसारीन संसारी जीव न असंसारी-र न संसारी च और 1 ईश्वर परमार्थतः परमार्थ से अस्ति है ॥ भावार्थ। हे शिष्य ! तुम्हारे ही अज्ञान से यह जगत् प्रतीत होता है और तुम्हारे ही आत्मज्ञान से यह नाश होता है । प्रश्न-अज्ञान का स्वरूप क्या है ? और ज्ञान का स्वरूप क्या है ? उत्तर-अनादिभावत्वे सति ज्ञाननिवर्त्यवमज्ञानम् । जो अनादि हो, और भावरूप हो, अर्थात् अभावरूप न हो, और ज्ञान करके निवृत्त हो जाते, उसी का नाम अज्ञान है ।। १ ।। अज्ञाननाशकत्वे सति स्वात्मबोधकत्वं ज्ञानम् ।
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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