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________________ २३२ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० विभागम्-विभाग को सन्त्यज छोड़ दे आत्मा आत्मा है इति ऐसा निश्चित्य-निश्चय करके त्वम्-तू (सङ्कल्पनिःसङ्कल्पः रहित (होता हुआ सुखीभव-सुखी हो । भावार्थ। अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! “यह वह है, मैं हूँ, मैं यह नहीं हूँ" इस भेद को त्यागकर "सर्वरूप आत्मा ही है" ऐसा निश्चय कर । यदि ऐसा करेगा, तो सुखी होगा, क्योंकि द्वैतदृष्टि से ही पुरुष को भय होता है । एक अद्वैत अपने आपसे किसी को भी भय नहीं होता है । द्वैतदृष्टि ही दुःख का कारण है । उसका त्याग करके तुम सुखी हो । जैसे एकान्त देश विषे स्थित पुरुष को तब तक आनन्द रहता है, जब तक उसके अन्तःकरण में भूत की भावनावृत्ति नहीं उत्पन्न होती है । ज्यों ही भूतद्वैतवृत्ति उत्पन्न हुई, त्यों ही वह भयको प्राप्त होता है, वैसे ही जब तक तेरे दिल में यह कल्पना है कि मैं और हूँ, जगत् और है, तभी तक दुःख और भय तुझको है, नहीं तो तू अद्वैत आनन्द-स्वरूप है ॥ १५ ॥ मूलम् । तवैवाज्ञानतो विश्वं त्वमेकः परमार्थतः । त्वत्तोऽन्यो नास्तिसंसारीनासंसारीचकश्चन ॥ १६ ॥
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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