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________________ पन्द्रहवां प्रकरण । २१५ भावार्थ । हे प्रियदर्शन ! तत्त्वज्ञान के सिवा किसी अन्य उपाय से विषया-सक्ति का नाश नहीं होता है। यह जो आत्मबोध है, वह बहुत बोल चालवाले चतुर को मूक कर देता है, और जो बड़ा बुद्धिमान् अनेक प्रकार के ज्ञान करके युक्त हो, उसको जड़ बना देता है, और बड़े उद्योगी को क्रिया से रहित आलसी बना देता है । मन का अंतर आत्मा की तरफ प्रवाह होने से सब इन्द्रियाँ ढीली हो जाती हैं अर्थात अपने-अपने विषयों के ग्रहण करने में असमर्थ हो जाती हैं। यह तत्त्वबोधवाक्यादिक संपूर्ण इन्द्रियों को बेकाम कर देता है। इसी वास्ते विषय-भोगों की कामनावाला पुरुष इसका आदर नहीं करता है, किन्तु वह आत्मज्ञान के साधनों से हजारों कोस भागता है॥३॥ मूलम् । न त्वं देहो न ते देहो भोक्ता कर्ता न वा भवान् । चिद्रूपोऽसि सदा साक्षीनिरपेक्षः सुखं चर ॥ ४ ॥ पदच्छेदः । - न, त्वम्, देहः, न, ते, देहः, भोक्ता, कर्ता, न, वा, भवान्, चिद्रूपः, असि सदा, साक्षी, निरपेक्षः, सुखम्, चर ॥ अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः। शब्दार्थ । त्वम्-तू भोक्ता-भोक्ता देहः शरीर न=नहीं है न-नहीं है चिद्रूपः चैतन्य-रूप है सदा-नित्य र ॥ ४ ॥ नम्न
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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