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________________ तेरहवाँ प्रकरण। १९७ भावार्थ। प्रश्न-कर्मों के करने में अथवा कर्मों के न करने में अर्थात् दोनों में से एक ही निष्ठा हो सकती है, दोनों में निष्ठा कैसे हो सकती है ? उत्तर-कर्म और निष्कर्म का हठरूप स्वभाव उसी को होता है, जिसकी देह में आसक्ति है, जिसकी देहादिकों में आसक्ति नहीं है, उसको हठ नहीं होता है, हे प्रभो ! मेरा तो देह के संयोग और वियोग में भी हठ नहीं है। देह का संयोग बना रहे वा इसका वियोग हो जावे, मैं अहंकार और हठ से रहित अपने आत्मा विषे स्थित हूँ। ४ ।। मूलम् । अर्थानों न मे स्थित्या गत्या वा शयनेन वा। तिष्ठन् गच्छन् स्वस्तस्मादहमासे यथासुखम् ॥ ५ ॥ पदच्छेदः । अथानों , न, मे, स्थित्या, गत्या, वा, शयनेन, वा, तिष्ठन्, गच्छन्, स्वपन्, तस्मात्, अहम्, आसे, यथासुखम् ।। अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः। शब्दार्थ। मे=मुझको तस्मात-इस कारण स्थित्या-स्थिति से अहम् मैं गत्या-चलने से तिष्ठन्=स्थित होता हुआ वा-या गच्छन्-जाता हुआ शयनेन-शयन से स्वपन्=सोता हुआ अर्थानों-अर्थ और अनर्थ यथासुखम्-सुख-पूर्वक न-कुछ नहीं है आसे-स्थित हूँ।
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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