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________________ अष्टावक्र गीता भा० टी० स० भावार्थ । प्रश्न - कायिक, वाचिक और मानसिक कर्मों में त्याग होने से शरीर का भी त्याग हो जावेगा; क्योंकि विना कर्मों के भोजनादिक क्रिया का त्याग होगा और विना भोजन के शरीर रहेगा नहीं ? १९६ उत्तर - शरीर और इन्द्रियादिकों करके किया हुआ जो कर्म है, वह वास्तव में आत्मा करके किया हुआ नहीं होता है । ऐसे चितवन करके विद्वान् को जब शरीरादिकों के खान-पानादिक कर्म करने पड़ते हैं, तब वह अहंकार से रहित होकर उन कर्मों को करता हुआ भी अपने सुख-स्वरूप में ही रहता है || ३ || मूलम् । कर्मनैष्कर्म्यनिर्बंधभावा देहस्थयोगिनः । संयोगायोग विरहादहमासे यथासुखम् ॥ ४ ॥ पदच्छेदः । कर्म नैष्कर्म्यनिर्बन्धभावाः, देहस्थयोगिनः संयोगायोगविरहात्, अहम्, आसे, यथासुखम् || अन्वयः । कर्म बन्धभावा देहस्थयोगिनः= { अहम् =मैं शब्दार्थ | कर्म और निष्कर्म के बंधन से संयुक्त स्वभाववाले देह विषे आसक्त योगी हैं। शब्दार्थ | अन्वयः । संयोगायोग - = { 'योग' - देह के संयोग और विरहात् पृथ होने के कारण यथासुखम् = सुख- पूर्वक आसे = स्थित हूँ ||
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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