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________________ १९० अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० करता है वा नहीं करता है, ऐसा जानकर ज्ञानी अपने नित्यानन्द-स्वरूप में स्थित रहता है ॥ ६ ॥ मूलम् । अचिन्त्यं चिन्त्यमानोऽपिचिन्तारूपं भजत्यसौ । त्यक्वा तद्भावनं तस्मादेवमेवाहमास्थितः ॥ ७ ॥ __ पदच्छेदः । अचिन्त्यम्, चिन्त्यमानः, अपि, चिन्तारूपम्, भजति, असौ, त्यक्त्वा, तद्भावनम्, तस्मात्, एवम्, एव, अहम्, आस्थितः।। अन्वयः। शब्दार्थ ।। अन्वयः। शब्दार्थ। अचिन्त्यम् ब्रह्म को तस्मात् इस कारण चिन्त्यमानः चितवन करता हुआ | तद्भावनम् उस चिन्ता की भावना को अपि भी त्यक्त्वा त्याग करके असौ यह पुरुष अहम्-मैं चिन्तारूपम् चिन्ता को एवम् एवम्भावना-रहित भजति=भावना करता है । आस्थितः स्थित हूँ॥ भावार्थ । ब्रह्म अचिन्त्य है अर्थात् मन और वाणी करके चिन्तन नहीं किया जा सकता है, पर जो आत्मवर्ग अचिन्त्यरूप का चितवन करना है, उस चिन्तवन की चिन्ता को भी त्याग करके मैं भावना-रूपी चिन्तवन से रहित अपने आत्मा में ही स्थित हूँ ॥ ७ ॥
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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