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________________ सातवाँ प्रकरण जनकजी कहते हैं कि विनाश से रहित व्यापक आत्मारूप समुद्र में जगत्-रूपी अनेक लहरें उदय होती हैं, और फिर अस्त हो जाती हैं। उनके उदय होने से आत्मा की वृद्धि नहीं होती है और उनके अस्त होने से आत्मा की कोई हानि नहीं होती है । जैसे समुद्र की लहरों के उदय और अस्त होने से समुद्र की कुछ भी हानि नहीं है ।।२।। मूलम्। मय्यनन्तमहाम्भोधौ विश्वं नाम विकल्पना । अतिशान्तो निराकार एतदेवाहमास्थितः ॥ ३ ॥ पदच्छेदः । मयि, अनन्तमहाम्भोधौ, विश्वम्, नाम, विकल्पना, अतिशान्तः, निराकारः, एतत्, एव, अहम्, आस्थितः । शब्दार्थ ।। अन्वयः। शब्दार्थ। मयि-मुझ __ अहम् =मैं अनन्त-_अनन्त महा अतिशान्त अत्यन्त शान्त हूँ. महाम्भोधौ । समुद्र में निराकारः निराकार हूँ नाम निश्चय करके च-और विश्वम् संसार एतत् एव-इसी आत्मा के विकल्पना कल्पना मात्र है आस्थितः आश्रय हूँ॥ समुद्र और लहर के दृष्टान्त से किसी को ऐसा भ्रम न हो जावे कि आत्मा का विकार जगत् है, इस भ्रम के दूर करने के लिये जनकजी दूसरी रीति से कहते हैं। अन्वयः।
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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