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________________ पहला प्रकरण । में, उनमें दोष-दृष्टि और ग्लानि होनी, और उसके त्याग की इच्छा होनी, और उनकी प्राप्ति के लिये किसी के आगे दीन न होना, इसी का नाम वैराग्य है। यह जनकजी के एक प्रश्न का उत्तर हुआ। प्रश्न-हे भगवन् ! संसार में नंगे रहने को भिक्षा माँगकर खानेवाले को लोग वैराग्यवान् कहते हैं और उसमें जड़भरत आदिकों के दृष्टांत को देते हैं । आपके कथन से लोगों का कथन विरुद्ध पड़ता है। उत्तर-संसार में जो मूढबुद्धिवाले हैं वे ही नंगे रहने वालों और माँगकर खानेवालों को वैराग्यवान् जानते हैं, और नंगों से कान फुकवाकर उनके पशु बनते हैं। परन्तु युक्ति और प्रमाण से यह वार्ता विरुद्ध है।। यदि नंगे रहने से ही वैराग्यवान् होता हो, तो सब पशु और पागल आदिकों को भी वैराग्यवान् कहना चाहिए, पर ऐसा तो नहीं देखते हैं। और यदि माँगकर खाने से ही वैराग्यवान् हो जावे, तो सब दिन दरिद्रियों को भी वैराग्यवान् कहना चाहिए, पर ऐसा तो नहीं कहते हैं। इन्हीं युक्तियों से सिद्ध होता है कि नंगा रहने और मांगकर खानेवाले का नाम वैराग्यवान् नहीं। यदि कहो कि विचार-पूर्वक नंगे रहनेवाले का नाम वैराग्यवान् है, यह भी वार्ता शास्त्र-विरुद्ध है, क्योंकि विचार के साथ इस वार्ता का विरोध आता है। जहाँ पर प्रकाश रहता है, वहाँ पर तम नहीं रहता । ये दोनों जैसे परस्पर विरोधी हैं, वैसे सत्त्वगुण का कार्य-सत्य, और मिथ्या का विवेचन-रूपी विचार है और तमोगुण का कार्य नंगा रहना
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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