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________________ अष्टावक्र गीता भा० टी० स० भावार्थ । अष्टावक्रजी जनकजी के प्रति कहते हैं कि हे तात ! यदि तुम संसार से मुक्त होने की इच्छा करते हो, तो चक्षु, रसना आदि पाँच ज्ञानेन्द्रियों के जो शब्द, स्पर्श आदि पाँच विषय हैं, उनको तू विष की तरह त्याग दे, क्योंकि जैसे विष के खाने से पुरुष मर जाता है, वैसे ही इन विषयों के भोगने से भी पुरुष संसार-चक्र-रूपी मृत्यु को प्राप्त हो जाता है । इसलिए मुमुक्षु को प्रथम इनका त्याग करना आवश्यक है, और इन विषयों के अत्यंत भोगने से रोग आदि उत्पन्न होते हैं और बुद्धि भी मलिन होती है । एवं सार और असार वस्तु का विवेक नहीं रहता है । इसलिये ज्ञान के अधिकारी को अर्थात मुमुक्ष को इनका त्याग करना ही मुख्य कर्तव्य है। प्रश्न-हे भगवन् ! विषय-भोग के त्यागने से शरीर नहीं रह सकता है, और जितने बड़े-बड़े ऋषि, राजर्षि हुए हैं, उन्होंने भी इनका त्याग नहीं किया है और वे आत्मज्ञान को प्राप्त हए हैं और भोग भी भोगते रहे हैं। फिर आप हमसे कैसे कहते हैं कि इनको त्यागो।। उत्तर-अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे राजन् ! आपका कहना सत्य है, एवं स्वरूप से विषय भी नहीं त्यागे जाते हैं, परन्तु इनमें जो अति आसक्ति है अर्थात् पाँचों विषयों में से किसी एक के अप्राप्त होने से चित्त की व्याकूलता होना, और सदैव उसीमें मनका लगा रहना आसक्ति है, उसके त्याग का नाम ही विषयों का त्याग है। एवं जो प्रारब्धभोग से प्राप्त हो, उसी में संतुष्ट होना, लोलुप न होना और उनकी प्राप्ति के लिए असत्य-भाषण आदि का न करना किंतु प्राप्ति काल
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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