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________________ पाँचवाँ प्रकरण। भावार्थ। प्रश्न-प्रत्यक्ष प्रमाण करके रज्जु विष सादिकों का भेद प्रतीत होता है, उनका कैसे लय हो सकता है ? क्योंकि जो वस्तु प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय है, उसका लय नहीं होता है ? उत्तर-प्रत्यक्ष प्रमाण का जो विषय है, उसका भी बाध शास्त्र करके हो जाता है। जैसे चन्द्रमा का मंडल प्रत्यक्ष प्रमाण से तो एक बित्ता भर का दिखाई देता है, परन्तु ज्योतिष शास्त्र में वह दश हजार योजन का लिखा है । उस शास्त्र करके बित्ता भर का नहीं माना जाता है। वैसे ही प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय जो जगत् है, वह भी श्रुति-वाक्यों करके बाधित हो जाता है, क्योंकि जगत् वास्तव में तीनों कालों में नहीं है, और जैसे स्वप्न की सष्टि और गंधर्वनगरादिक तीनों कालों में नहीं हैं, वैसे ही यह जगत भी वास्तव में तीनों कालों में नहीं है । ऐसा चिन्तन ही जगत् के लय का हेतु है ।। ३ ।। मूलम् । समदुःखसुखः पूर्ण आशानैराश्ययोः समः। समजीवितमृत्युः सन्नेवमेव लयं व्रज ॥४॥ पदच्छेदः । समदुःखसुखः, पूर्णः, आशानैराश्ययोः, समः, समजीवित्मृत्युः, सन्:, एवम्, एव, लयम्, व्रज ॥
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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