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________________ १०६ अष्टावक्र गीता भा० टी० स० वैसे ही मन के संकल्प से यह जगत् उत्पन्न हुआ है और मन के ही लय होने से जगत् लय हो जाता है । देवीभागवत में कहा है शुद्धो मुक्तः सदैवात्मा न वै बध्येत कर्हिचित् । बन्धमोक्षौ मनस्संस्थौ तस्मिञ्छान्ते प्रशाम्यति ॥ १ ॥ आत्मा सदैव शुद्ध और मुक्त है, वह कदापि बंध को नहीं प्राप्त होता है बंध और मोक्ष दोनों मन के धर्म हैं । मन के शान्त होने से बंध और मोक्ष का नाम भी नहीं रहता है । आत्मा में मन के लय करने से सारा जगत् लय को प्राप्त हो जाता है ॥ २ ॥ मूलम् । प्रत्यक्ष मप्यवस्तुत्वाद्विश्वं नास्त्यमले त्वयि । रज्जुसर्प इव व्यक्तमेवमेव लयं व्रज ॥ ३ ॥ पदच्छेदः । प्रत्यक्षम् अपि, अवस्तुत्वात्, विश्वम्, न अस्ति, अमले, त्वयि, रज्जुसर्प, इव, व्यक्तम्, एवम्, एव, लयम्, व्रज ॥ शब्दार्थ | शब्दार्थ | अन्वयः । अन्वयः । व्यक्तम् = दृश्यमान विश्वम् = संसार प्रत्यक्षम्अपि= { प्रत्यक्ष होता हुआ भी अवस्तुत्वात् = वास्तव में अमले= मल रहित त्वयि = तुझ विषे रज्जुसर्प=रज्जु सर्प इव सदृश भी न अस्ति नहीं है एवम् एव = इसी लिये लयम् = शान्ति को व्रज = ( तू ) प्राप्त हो ॥
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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