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________________ चौथा प्रकरण । में नहीं मानता है, किन्तु उनको अन्तःकरण का धर्म मानता है, इस वास्ते उसको पाप-पुण्य नहीं लगते हैं । अथवा जिसको पाप-पुण्य का विशेष ज्ञान होता है, उसी को पाप-पुण्य लगते हैं । वालक को या पागल को पाप-पुण्य का ज्ञान नहीं होता है, इस वास्ते उनको भी पाप-पुण्य नहीं लगते हैं । ज्ञानवान् को भी पाप-पुण्य का ज्ञान नहीं होता है क्योंकि वह अपने आत्मानन्द में मग्न रहता है, अतएव उसको भी पाप-पुण्य नहीं लगते हैं। इसी पर और दृष्टान्त कहते हैं जैसे आकाश का धम के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, वैसे आत्मवित् का भी पुण्य और पाप के साथ कोई भी सम्बन्ध नहीं है ॥ ३ ॥ मूलम् । आत्मवेदं जगत्सर्वं ज्ञातं येन महात्मना । यदृच्छया वर्तमानं तं निषेद्धक्षमेत कः ॥ ४ ॥ पदच्छेदः । आत्मा, एव, इदम्, जगत्, सर्वम्, ज्ञातम्, येन, महात्मना, यदृच्छया, वर्तमानम्, तम्, निषेधुम्, क्षमेत्, कः ।। शब्दार्थ । | अन्वयः। शब्दार्थ । ___ यदृच्छया-प्रारब्धवश से यन महामना करके तम् उस इदम् सर्वम्-यह सम्पूर्ण वर्तमानम्-वर्तमान ज्ञानी को जगत्-संसार निषेधुम्=निषेध करने को आत्मा एव-आत्मा ही का कौन ज्ञातम्-जाना गया है क्षमेत समर्थ है ॥ अन्वयः। येन महात्मना- जिस महात्मा
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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