SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९६ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० सम्बन्ध किसी प्रकार नहीं होता है । क्योंकि वह पुण्य और पाप को अन्तःकरण का धर्म मानता है अपने आत्मा का नहीं। जो अपने में पूण्य और पाप मानता है, उसी को पुण्य-पाप भी लगते हैं। इसमें एक दृष्टांत कहते हैं ___ एक पण्डित किसी ग्राम को जाते थे। रास्ते में खेत के किनारे, एक वृक्ष के नीचे बैठकर, सुस्ताने लगे। उस खेत में एक जाट हल जोतता था। जब उसके बैल हल के आगे चलते-चलते खड़े हो जाते थे, तब वह जाट बैलों को गालियाँ देता था कि 'तेरे खसम की लड़की को ऐसा करूँ।' 'तेरे खसम के मुख में पेशाब करूंगा।' इत्यादि। पण्डित ने जब उसको बैलों के प्रति भी गालियाँ देते देखा, तब विचार करने लगे कि इन बैलों का खसम तो यह पुरुष आप ही है और यह अपने को ही ये गाँलियाँ दे रहा है, परन्तु इस वार्ता को यह समझता नहीं है, अतएव इसको समझा देना चाहिए। ___ तब पण्डित ने उस जाट से कहा कि तू जो बैलों को गालियाँ दे रहा है, ये गालियाँ किसको लगती हैं। तब जाट ने कहा कि जो साला गालियों को समझता है, उसी को लगती हैं। यह सुनकर पण्डितजी चुप होकर चले गये । जाट का तात्पर्य यह था कि मैं तो समझता नहीं हूँ औरतू समझता है, अतएव ये गालियाँ तेरे को ही लगती हैं । दाष्टन्ति । अज्ञानी पाप और पुण्य को अपने में मानता है इस वास्ते अज्ञानी को ही पाप और पुण्य लगते हैं । ज्ञानी अपने
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy