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________________ (६६) अपराक्षानुभूतिः। . ज्ञाननिवृत्तौ प्रारब्धाभावइति श्लोकार्थः । पदार्थस्तु स्फुटएव ॥ ९१॥ • भा. टी. तत्त्वज्ञानके अनन्तर प्रारब्ध अथात् कर्मफल नहीं रहताहै क्योंकि जैसे स्वममें नानाप्रकार विचित्र विचित्र प्रकार देखने में आचैं हैं और जब पुरुष जगैहै तौ सबझूटे होजायहैं इसी प्रकार आत्मज्ञान होनेसे देहादि असत स्वरूप मालूम होने लगें हैं और जब देहादिक असत् हुए हैं तब प्रारब्ध कर्म और उनके फलभी असत्स्वरूप होजायहैं॥९१॥ कर्मजन्मांतरीयं यत्प्रारब्धमितिकीर्तितम् ॥ तत्तुजन्मांतराभावात्पुंसोने वास्तिकहिँचित् ॥९२॥ सं. टी. इदानी प्रारब्धशब्दं व्युत्पादयन्मुक्तमुपसंहरति कर्मेति तत्र कर्म त्रिविधं संचितक्रियमाणप्रारब्धभेदात् तन्मध्ये भाविदेहारंभकं संचितं तथावर्तमान देहनिर्वत्यैक्रियमाणं प्रारब्धंतु वर्तमानदेहरिभकं तत्र यद्यपि संचितं जन्मांतरीयमेव तथापि भाविदेहस्य तप्रारब्धमेव भवति तेनेदं सिद्धमात्मनः स्वतः कर्तृत्वाभावात्कालत्रयेपि जन्मनास्तीति सर्वमवदातम् ॥ ९२॥ ___ भा.टी. पूर्व जन्मके कर्म प्रारब्ध कहैं हैं और जब पुरुषको तत्त्वज्ञान होय है फिर जन्म नहीं होयहै यदि जन्म नहीं हुआ तौ कर्मका भोक्ता कोन होय इस कारण तत्त्वज्ञान होनेके
SR No.034085
Book TitleAparokshanubhuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankaracharya, Vidyaranyamuni
PublisherKhemraj Krushnadas
Publication Year1830
Total Pages108
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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