SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (६२) अपरीक्षानुभूतिः अश्रेषु सत्सु धावत्सु सोमो धावति . मातिना तददा० ॥८४॥ सं. टी. अभ्रेष्विति ॥ ८४॥ भा. टी. जिस प्रकार आकाशमें मेघोंके दौडनेसे चन्द्रमा दौडतासा मालूम होय है तिसी प्रकार अज्ञान वशसे आत्मा में देहका ज्ञान है ॥ ८४ ॥ . यथैवदिग्विपर्यासो मोहाद्भवति कस्य चित् ॥ तददा० ॥ ८५॥ सं. टी. यथेति यथावृक्षेत्यादिश्लोकानां स्फुटार्थ त्वात्पिष्टपेषणतुल्यत्वेन न व्याख्यानं कृतम् ॥ ८५ ॥ ___ भा. टी. जिस प्रकार मोह वशमे किसीको दिशाओंमें काम होय है तिसी प्रकार अज्ञान वशसे आत्मामें देहका ज्ञान है ॥ ८५॥ यथाशशीजले भातिचंचलत्वेन कस्य चित् ॥ तद्रदा०॥८६॥ सं. टी. यथाशशीति शशीत्युपलक्षणं सूर्यादीनामपि शेष स्पष्टम् ॥ ८६॥ भा. टी. जिस प्रकार किसीको किसी समय जलके हिलनेसे चन्द्रका प्रतिबिम्ब हिलनेसे चन्द्रमा हिलैहै ऐसा बोध होय इसी प्रकार अज्ञान वशसे आत्मामें देहका ज्ञानहै ॥ ८६ ॥
SR No.034085
Book TitleAparokshanubhuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankaracharya, Vidyaranyamuni
PublisherKhemraj Krushnadas
Publication Year1830
Total Pages108
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy