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________________ स्थिर पदार्थ छे तेने स्थिर रूप मानी वर्ते छे. कोइं आत्मतत्वनी वातं करे छे तो ते सांभलवानी पण इच्छा करतो नथी, वली कदापि कोइनी सोबते सांभलवा जाय तो पण सांभलवानुं लक्ष नहीं; ते छतां कानमां शब्द पडे तो तेनो पण विचार करे नही; कदापी करे तो एवों करे जे शास्त्रमा कर्तुं छे ते प्रमाणे कोण चाले छे ? शास्त्र सांभली उलटा उंधा चाले छे, एवां पारकां दूषण काढे छे. कोइ गुणवंत श्रावक होय, सम्यक्दृष्टि होय अने संसारमा रहेलो होय तो तेने कहे जे शास्त्रमा संसार असार करो छे अने आवा जाणकार थइ संसारमा केम रहो छो ? वली मुनि महाराज कोइ कारणे करी अपवाद सेवता होय तो तेनी निंदा करे. एनुं कारण जे शास्त्र सांभलीने जो मोहनीकर्म थोडं पण खस्युं होत तो आत्मा साथे विचार करत अने पोतानां दूषण जोत, पण मोहनीकर्मनुं जोर घणुं छे तेथी शास्त्र सांभलीने पण उलटा विचार करी मोहनीकर्म वधारे बांधे छे अने आत्माने वधारे मलीन करता जाय छे. वली अन्याय, लुच्चाइ, ठगाइ ने चोरी करवी, पारकाने कलंक देवू, पारकी निंदा करवी, परने संकटमां नाखवा, जीवहिंसा करवी, अहंकार ममकार करवा, मदे करी मदो. न्मत्त रहेवू, जूलु बोलवा बोलाववामां सावधान थर्बु, स्वदारा परदारानो विचार नहीं धराववो ए मोहनीकर्मनां लक्षण छे. वली केटलाक तो विषयमां एवा लुब्ध थइ जाय छे के पोतानी माता, व्हेन, के पुत्रीनी साथे पण भोग करतां शंकाता नथी. ए सर्वे जोर मोहनीकर्मनुं छे. ते अनादिकालनु जीवने लागेलुं छे. तेना प्रभावथी आत्माना गुण जे चा. रित्र तथा समकित ते ढंकाइ जाय छे. ते मोहनीकर्म बे प्रकारनुं छे. (१) चारित्रमोहनी, (२) दर्शनमोहनी, ए बे प्रकारना मोहनीकर्मनी अठ्ठावीस प्रकृति छे. तेमां प्रथम चारित्रमोहनीनी पचीस प्रकृति नीचे प्रमाणे छे. अनंतानुबंधी-क्रोध, मान, माया अने लोभ. अप्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माया अने लोभ. प्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माया अने लोभ. संजलनो क्रोध, मान, माया अने लोभ. हास्य, रति अरति, भय, शोक, Scanned by CamScanner
SR No.034080
Book TitlePrashnottar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupchand Malukchand Sheth
PublisherJain Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1906
Total Pages299
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size135 MB
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