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________________ (११२ ) ने धनाढ्य थाय छे तेम स्वभाविक बोध थइ जाय. पण ए थोडा जीवने एम बने. घणा माणसने एम बनवं मुश्केल पडे छे. ने बराबर उद्यमथी तो घणा माणस धन पेदा करे छे; तेम जैनमार्गथी निकट मुक्ति छे. अ. न्य पण भावथी जैनधर्मनी मर्यादाए आत्मिकधर्म आवे तो ज मुक्ति पामे. ५६ प्रश्नः-आवु जाणीने जैनधर्म उपर राग राखे ने अन्यधर्म उपर द्वेष राखे ते युक्त छे के केम ? उत्तरः-जे जैनधर्म पाम्यो होय तेणे कोइ धर्म उपर अथवा कोइ माणस उपर द्वेष राखवो नहि. कारण के जैनना आचार्य तो कही गया छे जे दर्शन सकलना नय ग्रहे, आप रहे निज भावे रे--एनो परमार्थ ए छे जे. जे धर्मवालाये मार्ग दर्शाव्यो छे तेमां सारभूत शुं छे ? ते सारभूत जे पक्षथी होय ते पक्ष जाणी ले. ने सारा पक्षनी व्याख्या करे. विरुद्ध पक्ष उपर लक्ष न दे. आप रहे निज भावे कहेतां जैनशासनमां सात नये मार्गनो निर्णय छे ते भावे रहे; पण कोइ जीव उपर द्वेष करे नहि. तथा निंदा करे नहि. निंदा करवी ए संसारमा ज उचित नथी. वली वाद विवादमां पण सामा जीवने अथवा पोताने लाभ थाय एवं होय तो वाद कर, पण पोताना अहंकार ममकार सारु न करे. अष्टकजीमां पाने ५२, बारमा अष्टकमां हरिभद्रसूरि महाराजे धर्मवाद करवो कह्यो छे, पण शुष्कवाद एटले गहुँ शोषाय, कंइ फायदो थाय नहि, ते वाद निषेध्यो छे. वली जेने आत्मधर्म प्रगट करवो छे, ते जेम बने तेम पुद्गलभावनी प्रवृत्तिथी छूटवानो उद्यम करी रह्या छे. ते माणस पारकी पंचातमां केम पडे ? जेने व्यवहार करणी करवी छे ते एवी करे के जेमां आत्मवि. शुद्धि थाय. राग द्वेषनी परिणती ओछी थाय ए उद्यम करे. ते धणी कोइ उपर द्वेष राखे नाह. ते तो सदा भावदया करी रह्या छे. माटे पोताने फुरसद पडे धर्मोपदेश दे. तेमां पण कोइy छिद्र खुले एवं न करतां सांभलनारने जेम समता वधे तेम करे. ५७ प्रश्न:-अधर्मी जीव उपर द्वेष करे के नहि ? Scanned by CamScanner
SR No.034080
Book TitlePrashnottar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupchand Malukchand Sheth
PublisherJain Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1906
Total Pages299
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size135 MB
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