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________________ ( ४५ ) जैसा रङ्ग होगा वैसा ही दीखता रहेगा, अतः सफेद अरिसा के तुल्य हृदय बनाकर रूपस्थ ध्यान किया जाय तो आनन्द की सीमा न रहेगी, जो लोग ध्यान के अभ्यासी हैं उनके लिये यह ध्यान कोई मुश्किल बात नहीं है । जो अनन्त सूख की अभिलाषा वाले हैं उन्हें यह ध्यान अवश्य करना चाहिये । रुपातीत ध्येय का स्वरूप अमूर्त, सच्चिदानन्द स्वरूप निरञ्जन-सिद्ध परमात्मा का ध्यान जो निराकार-रूप रहित जिसको रूपातीत ध्यान कहते हैं । रूपातीत ध्यान बहुत उच्च कोटि का है । जो इस ध्यान को सिद्ध (स्वरूप) भगवान का आलम्बन लेकर नित्य प्रति ध्यान करते हैं, वह योगी ग्राह्य, ग्राहक भावरहित तन्मयता को प्राप्त करता है और अनन्य शरणी होकर इस प्रकार तन्मय हो लयलीन हो जाता है कि ध्यानी और ध्यान के अभाव से ध्येय के साथ एकरूपता प्राप्त कर लेता है । जो इस प्रकार एकरूपता में लीन हो जाता है उसका नाम आसमरसीभाव कहते हैं । अर्थात् एकीकरण, अभेदपन माना है कि जो आत्मा अभिन्नता से परमात्मा के विषे लयलीन होता है उसी के कार्य की सिद्धि होती है। लक्ष्य ध्यान के सम्बन्ध से अलक्ष्य ध्यान करना । स्थूल ध्यान से सूक्ष्म ध्यान का चिन्तवन करना सालम्बन से निरालम्बन होना, इस प्रकार करने से तत्त्वज्ञ योगी शीघ्र ही तत्व प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार चार तरह के ध्यानामृत से मग्न होने वाला मुनि योगी का मन जगत् के तत्वों को साक्षात कर आत्मा की शुद्धि कर लेता है। Scanned by CamScanner
SR No.034079
Book TitleNamaskar Mantrodadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaychandravijay
PublisherSaujanya Seva Sangh
Publication Year
Total Pages50
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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