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________________ ( २६ ) मुंह में ही कण्ठ से या जिम्या से जाप्य करता रहे। इस तरह का जाप्य पुष्टिदायक होता है। अतः जो पुष्टि के हेतु जाप करते हैं उन्हें उपांसु विधान का उपयोग करना चाहिये । तीसरा भाष्य जाप्य उसे कहते हैं कि जाप्य करते समय का उच्चार आस-पास के सब सुन सके इस तरह शुद्धता पूर्वक पाठ करे ता इस तरह का जाप्य आकर्षणादि कार्य के लिये उपयोगी होता है अतः जैसो जिसकी भावना हो और कार्य हो तदनुसार लाभालाभ देखकर विधान करना चाहिये । ध्यान करते समय चित-चञ्चल न हो और परिणाम सम रहने के हेतु अनुकूल आसन स्थिर कर जाप्य ध्यान करना चाहिये जो आसन स्थिर नहीं रखते उनको ध्यान में स्थिरता नहीं आती अत: चपलता का त्याग कर आसन स्थिर बनना चाहिये । हम यहां कुछ आसन का स्वरूप बताना चाहते हैं। योग शास्त्र में इसका कुछ वर्णन है। ___--2-- प्रासन का विचार आसन शुद्ध करना और अनुकुल आसन में जय प्राप्त करना ध्यान साध्य में सहायक होता है । आसन जमाने के लिए एकान्त स्थान हो जहाँ किसी प्रकार की चिन्ता भय प्राप्त होने की सम्भावना न हो, अनुकुल संयोग व समाधि सहित ध्यान हो सके ऐसे स्थान को पसन्द करना चाहिये। जिसमें भी तीर्थ स्थान-जिनेश्वर भगवान की कल्याणक भूमि हो तो विशेष आनन्द दायक है। - आसन तो चौरासी प्रसिद्ध हैं। हम सबका उल्लेख करना नहीं चाहते लेकिन उपयोगी आसन जो गृहस्थ कर सकें उन्हीं का वर्णन करेंगे। Scanned by CamScanner
SR No.034079
Book TitleNamaskar Mantrodadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaychandravijay
PublisherSaujanya Seva Sangh
Publication Year
Total Pages50
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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