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________________ दादाश्री निज दशा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि "मैं समाधि से बाहर निकलता ही नहीं हूँ' । मैं 'ए. एम. पटेल' नहीं हूँ, उनके जो मन-बुद्धि-चित्त और अहंकार हैं, वह मैं नहीं हूँ। जो शुद्धात्मा है, वह मैं नहीं हूँ। ‘शुद्धात्मा' शब्द स्वरूप से मैं नहीं हूँ, मैं तो दरअसल स्वरूप से हूँ, निरालंब स्वरूप से हूँ ।" दादाश्री कहते हैं कि इसके बावजूद भी पूर्ण दशा में मेरी चार डिग्री कम हैं। क्यों? मेरी एक इच्छा रह गई । 'मैंने जो सुख पाया, सभी वह पाएँ।' निरालंब की बात शब्दों से नहीं समझाई जा सकती। कई वर्षों तक ज्ञानी के पास पड़े रहें, तब जाकर कुछ समझ में फिट होता है। जब तक आत्म सम्मुख नहीं हुआ तब तक सुख-दुःख हैं, अवलंबन हैं, परवशता है। जब आत्मा के अलावा तमाम अवलंबन छूट जाएँगे तब पूर्ण होंगे ! महात्माओं को जो शुद्धात्मा पद प्राप्त हुआ है, वह शब्दावलंबन है। जैसे-जैसे आज्ञा में रहेंगे वैसे धीरे-धीरे अवलंबन जाएँगे और निरालंब हो पाएँगे। हाँ, सौ प्रतिशत मोक्ष की मुहर लग गई ! दादा का ज्ञान मिलने के बाद निरंतर सहज रूप से शुद्धात्मा का लक्ष (जागृति) रहे, संसार में कषाय नहीं हों, चिंता - टेन्शन नहीं हों फिर भी वह मूल आत्मा नहीं है । जो शुद्धात्मा महात्माओं को प्राप्त हुआ है, उससे मोक्ष के पहले दरवाज़े में प्रविष्ट हुए । मोक्ष की मुहर लग गई लेकिन मूल आत्मा बहुत दूर है। हाँ, महात्मा एकदम शोर्ट कट में आ गए हैं। अब मात्र पाँच आज्ञाओं का पालन करके अनुभव कर लेना है। अब मात्र ज्ञानी के पीछे पड़े रहना है। अनुभव करते-करते शब्द चले जाएँगे और अनुभव का भाग बचेगा। अनुभव इकट्ठा होते-होते जैसेजैसे मूल जगह पर आता जाएगा वैसे-वैसे खुद का वह रूप पूर्ण होता जाएगा। उसके बाद अनुभव और अनुभवी दोनों एक हो जाएँगे। - जब तक पिछला कर्ज़ हैं तब तक वह निरालंब आनंद के अनुभव में नहीं रहने देता। हाँ, देहाध्यास चला गया इसलिए आत्मानुभव तो हो ही गया। 54
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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