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________________ ३४२ आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध) शुद्धात्मा की बोतल के साथ, ढक्कन के साथ। आत्मा बोतल है। शुद्ध उसका ढक्कन है। वर्ना आपका तो सब बह जाएगा। ज्ञानी की वाणी ही है अंतिम आलंबन प्रश्नकर्ता : आपने वह जो निरालंब स्वरूप देखा है न, वह कैसा होता है ? उसके बारे में कुछ कहिए न। दादाश्री : ऐसा है न, जो यह पूछ रहा है कि कैसा होता है, वही बुद्धि है लेकिन वह (स्वरूप) ऐसा है कि बुद्धि से नहीं देखा जा सकता। प्रश्नकर्ता : तो इस प्रकार से निरालंब स्वरूप देखा किसने? इसमें मूल स्वरूप से दादा रहे हुए हैं। इसे अनुभव करने के लिए वे अलग रहे न? मूल स्वरूप को देखने वाले अलग ही हैं न अभी? दादाश्री : वह प्रज्ञा ही है। प्रज्ञा से, सारा काम प्रज्ञा का है। आपके शुद्धात्मा स्वरूप को देखने वाली यह प्रज्ञा है। प्रज्ञा उसे देखती है। जब तक केवलज्ञान समझ में है, तब तक प्रज्ञा बाहर रहती है। जब केवलज्ञान ज्ञान में रहेगा, तब प्रज्ञा फिट हो जाएगी, बस। और क्या! फिर देखने वाला भी कौन रहा? बाकी, जगत् में निरालंब शब्द है ही नहीं। अवलंबन के बिना रहेंगे किस प्रकार से? निरालंब होने पर ही सर्वस्व दुःख जाते हैं। अवलंबन वाले को तो पकड़ लेंगे कि सभी शुद्धात्मा वालों को पकड़ लाओ। प्रश्नकर्ता : श्रीमद् राजचंद्र ने एक वाक्य कहा है कि केवलज्ञान होने के समय से पहले तक ज्ञानीपुरुष की वाणी अवलंबन रूपी है और इस वाणी का माध्यम ही ऐसा साधन है जो निरालंब बना सकता है। दादाश्री : वह सबकुछ हो सकता है। जो निरालंब हो चुके हैं उनकी वाणी से निरालंब हो सकते हैं। भगवान ज्ञानी के वश में ज्ञानीपुरुष तो इस वर्ल्ड का आश्चर्य कहलाते हैं। भगवान के ऊपरी कहलाते हैं।
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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