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________________ नहीं। उदासीनता में तो सभी नाशवंत चीज़ों पर से भाव टूट जाता है और अविनाशी की खोज होने के बावजूद भी उसकी प्राप्ति नहीं होती। राग-द्वेष के बाद में उपेक्षा - वैराग- उदासीनता - समभाव - वीतरागता। इस प्रकार स्टेपिंग होते हैं क्रमिक में। अक्रम में राग-द्वेष में से तो सीधा स्वभाव में रख दिया। वीतराग के एकदम नज़दीक! भाव, उदासीनता में कर्मबंधन नहीं होता। उदासीनता वीतरागता की जननी है! शुद्ध चेतन तो वीतराग भाव से ही है लेकिन अगर लोगों से कहा जाए कि उदासीन भाव से है तो उन्हें तुरंत समझ में आ जाएगा। जिस चीज़ में राग या द्वेष होता है, वह चीज़ उसे याद आती ही रहती है। स्नेह और राग में क्या फर्क है? स्नेह अर्थात् गाढ़। चिपक गया। राग अधिक मुश्किल है। स्नेह तो टूट भी सकता है। राग बिना ज्ञान के नहीं टूट सकता। [2.3] वीतद्वेष जगत् द्वेष से दुःखी है, राग से नहीं। पहले द्वेष छोड़ना है उसके बाद राग। भगवान पहले वीतद्वेष हुए, उसके बाद वीतराग हुए। जगत् बैर से खड़ा है। बैर में से राग उत्पन्न होता है। बैर अर्थात् मूल द्वेष। आत्मज्ञान होने पर वीतद्वेष हो जाता है, उसके बाद वीतराग हो जाता है। संसार में जो राग है, वह कैसा है ? जेल में रहा हुआ व्यक्ति जेल को लीपता-पोतता है। क्या उसे जेल पर राग है ? नहीं, ज़रा सा भी नहीं। वह तो इसलिए कि 'रात को कैसे सोऊँ ?' इसलिए, लाचारी में। संसार में भटकाने वाला मूल कारण द्वेष है। घर में सभी पर प्रेम ही आए, द्वेष हो ही नहीं तो जानना कि नया बीज नहीं पड़ेगा। भगवान ने कहीं पर द्वेष करने को नहीं कहा है। कुसंग के प्रति भी नहीं। द्वेष को ही छोड़ना है। राग नहीं। वीतद्वेष बन जाओ, अपने 28
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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