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________________ १९८ आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध) प्रश्नकर्ता : तो हमें जो यह सब बोलना है, वह अपने पुद्गल को शुद्ध करने के लिए ही बोलना है न? दादाश्री : यह सब पुद्गल को शुद्ध करने के लिए ही है। हाँ, तब तक दशा पूर्ण नहीं होगी। दादा ने हमें शुद्ध बनाया है, अब इस पुद्गल का शुद्धिकरण बाकी है। उसका अशुद्ध होना बंद हो गया है। अब अभी अगर ऐसा शुद्धिकरण हो न, तो एक जन्म तक चले ऐसा है। आज्ञा में रहने से शुद्धिकरण होता रहेगा। प्रश्नकर्ता : यह पूरा साइन्स पुद्गल को शुद्ध करने के लिए ही है न? आज्ञारूपी जो ये पाँच वाक्य हैं या फिर यह जो सारा विज्ञान है, वह पुद्गल को शुद्ध करने के लिए ही है न? आत्मा को कोई लेना-देना नहीं है। दादाश्री : मूलतः तो हमें पुद्गल को भी शुद्ध करने की (यानी कर्तापन की क्रिया की) भी कोई ज़रूरत नहीं है। हमें, अपनी जो शुद्ध दशा (ज्ञाता-दृष्टा) है, उसमें अगर हम अशुद्धि (मैं कर्ता हूँ) नहीं मानेंगे तब पुद्गल तो शुद्ध हो ही जाएगा। पुद्गल तो अपने आप शुद्ध होता ही रहेगा! प्रश्नकर्ता : लेकिन अशुद्धि तो पुद्गल की ही है न? दादाश्री : जगत् भला कभी पुद्गल को अशुद्धि मानता होगा? पूरा जगत् ऐसा मानता है कि अशुद्धि आत्मा की ही है। कहते हैं कि 'मेरा आत्मा ही पापी है'। पुद्गल की अशुद्धि को लोग समझते ही कहाँ हैं ? उसे आप समझे? पुद्गल में यदि दखलंदाजी नहीं होगी न तो यह तो स्वच्छ होता ही रहेगा लेकिन यह दखलंदाजी करता है। दखल करता है और फिर गड़बड़ हो जाती है! दखलंदाजी कौन करता है? तो वे हैं अज्ञान मान्यताएँ! प्रश्नकर्ता : आप पुद्गल से जो कह रहे हैं, मैं सुन रहा हूँ। दादाश्री : अज्ञानता पुद्गल में थी। ये शब्द उन आवरणों को तोड़
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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