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________________ १६८ आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध) प्रश्नकर्ता : देह को मुक्त छोड़ देने का मतलब क्या है? दादाश्री : इस लटू को फैंकने के बाद वह जैसे भी घूमे वह सही है। अब फिर से उस पर डोरी लपेटने की ज़रूरत नहीं है। फिर लटू वापस ऐसे घूमेगा। फिर उछलकर कूदेगा, फिर वापस एक जगह पर बैठ जाएगा, फिर ऐसे-ऐसे होगा। तब हम समझ जाएँगे कि अस्पताल की तरफ चला। अस्पताल से वापस आने पर सीधा हो जाता है। घात गई, ऐसा पता चलता है न? प्रश्नकर्ता : फिर ज़रा उल्टा भी चलता है। दादाश्री : हाँ, उल्टा भी चलता है। उसे कुछ कह नहीं सकते। लटू है! प्रश्नकर्ता : किसी भी तरह राग-द्वेष रहित होना, वही वीतराग मार्ग है। दादाश्री : किंचित्मात्र राग नहीं और किंचित्मात्र द्वेष भी नहीं। एकदम से नहीं हो लेकिन यदि ज्ञान मिलने के बाद ऐसी भावना करने से, यों करते-करते धीरे-धीरे ऐसा हो सकेगा, वर्ना नहीं हो सकेगा। लाख जन्मों में भी नहीं हो सकेगा। यह पुद्गल क्या कहता है कि 'तू शुद्धात्मा बन गया है तो ऐसा मत मानना कि तू मुक्त हो गया। तूने मुझे बिगाड़ा था इसलिए अब तू हमें शुद्ध कर तो तू भी मुक्त और हम भी मुक्त'। तब पूछे, 'कैसे मुक्त करूँ?' तब वह कहता है, 'हम जो कुछ भी करें, उसे तू देख और कोई दखल मत करना। राग-द्वेष रहित देखता रह'। प्रश्नकर्ता : राग-द्वेष रहित देखते रहना है? दादाश्री : देखता रह, बस। तो हम मुक्त! राग-द्वेष से हम मैले हो चुके हैं, तेरे राग-द्वेष की वजह से! तेरी वीतरागता से हम मुक्त हो जाएँगे। परमाणु शुद्ध हो जाएँगे।
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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