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________________ [२.३] वीतद्वेष वही खा लेता है, उसे शांत करने के लिए। और उसके बाद जब पसंद करता है, वहाँ से राग होने की शुरुआत हुई। अतः राग तो, एक-एक चीज़ हमारी ही पसंद है कि यह या यह या यह । जबकि द्वेष तो अनिवार्य है। भाई, खाए बगैर तो चलेगा ही नहीं न ! तो क्या सोए बगैर भी नहीं चलेगा ! कोई हमें सोने से रोके तो उसके प्रति क्या होता है हमें ? राग होता है या द्वेष होता है ? प्रश्नकर्ता : एकदम द्वेष होता है । दादाश्री : जब भूख लगी हो और उसे कोई रोके तब क्या होता है ? राग अर्थात् खुद के मन मुताबिक, वह खुद का स्वतंत्र भाग है । द्वेष में स्वतंत्र है ही नहीं। इस बारे में शास्त्र पढ़े या बारीकी से सोचे ? प्रश्नकर्ता: दादा, बारीकी से कैसे सोच पाएगा ? दादाश्री : शास्त्रों में पढ़ते हैं । जो शास्त्र लिखे गए हैं, उनमें तो सभी के लिए एक साथ दवाई रखी गई है। जिसे जो अनुकूल आए वह दवाई ले लेना। बेकार ही पत्नी को छोड़कर भाग मत जाना। जिसे कर्म का उदय आए, वही छोड़ना । कर्म का उदय नहीं हो तो फिर वैसा । (त्यागी) कर्म के उदय वाले को तो यदि यहाँ पर सांसारिक बनाने जाएँगे तो भाग जाएगा। तीसरे ही दिन भाग जाएगा । १३१ द्वेष ही पहले, बाद में राग I यदि खुद की स्त्री पर ज़रा सा भी द्वेष नहीं रहे न, तो स्त्री के प्रति राग होगा ही नहीं, ऐसा नियम है । अतः मजबूरन स्त्री पर राग करता है बेचारा । यह तो ऐसा है कि द्वेष होता है, इसलिए वह द्वेष ही उसे धक्का मारकर राग में डाल देता है । यदि द्वेष नहीं हो रहा हो न तो स्त्री पर राग होगा ही नहीं। वह ज़रा सा सोचने के बाद समझ जाता कि यह राग करने जैसी चीज़ है ही नहीं । भरत राजा की तेरह सौ रानियाँ थीं लेकिन राग हुआ होगा पर द्वेष नहीं हुआ होगा उन्हें ! वीतद्वेष हो चुके थे भरत राजा !
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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