SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दोनों में से एक से भी नहीं। वह दर्शन से है और फिर वह कुदरती है। दर्शन के बिना साइन्टिस्ट बन ही नहीं सकते। महान संतों में भी जो है, वह दर्शन ही कहलाता है। प्रज्ञा तो आत्मा प्राप्त होने के बाद ही उत्पन्न होती है। प्रज्ञा डायरेक्टली अहंकार को ही सावधान करती है। जो ज्ञानी का निदिध्यासन करवाती है, वह प्रज्ञा है। निदिध्यासन नहीं होने में दखल किसकी है? उदयकर्म की। शुद्ध चित्त, वही शुद्धात्मा है। जब ज्ञान मिलता है तब संपूर्ण शुद्ध चित्त हो जाता है, तब प्रज्ञा प्रकट होती है। जब अशुद्ध चित्त और मन का बहुत ज़ोर रहता है, तब निश्चय बल बंद हो जाता है। दादाश्री कहते हैं, 'मैं कभी भी शुद्धात्मा की गुफा से बाहर निकलता ही नहीं। बाहर निकलूँगा तब अंदर जाना पड़ेगा न? और अगर मैं बाहर निकलूँ तो इन महात्माओं के घर कौन जाएगा? हर रोज़ दादा हर एक महात्मा के घर जाते हैं! वह प्रज्ञा की ज़बरदस्त शक्ति है ! दादा को याद करते ही वह प्रत्यक्ष हाज़िर हो जाते हैं, वह क्या है ? प्रज्ञाशक्ति पहुँच जाती है वहाँ पर'। दादाश्री को याद करते ही दादा हाज़िर हो जाते हैं, वह क्या है ? वह दादाश्री की प्रज्ञा का काम है। जैसा सामने वाले का भाव होता है, उसी अनुसार उसे मिल जाता है। उसमें दादाश्री को कोई लेना-देना नहीं हैं और वे इस चीज़ की खबर भी नहीं रखते। यह जो फाइलों का निकाल करवाती है, वह प्रज्ञाशक्ति है और 'व्यवस्थित' शक्ति निकाल करती है। आज्ञा पालन का निश्चय कौन करता है ? प्रज्ञा । ज्ञान मिलने के बाद जो डिस्चार्ज अहंकार प्रज्ञा में तन्मयाकार रहना चाहिए, वह स्लिप हो जाता है। प्रज्ञा में तन्मयाकार रहना, इसका मतलब क्या है? प्रज्ञा के प्रति सिन्सियर रहना। सिन्सियर कब रहा जा सकेगा? निश्चय पक्का होगा, तब। हमें किनारे पर पहुँचना हो तो ज़ोर किनारे की तरफ ही मारना पड़ेगा न! 20
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy