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________________ स्थितप्रज्ञ अर्थात् कोई व्यक्ति बहुत शास्त्र पढ़े, संतों की सेवा करे, संसार में खूब मार खाकर अनुभव लेकर स्थिर हो जाए, तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है, उसे स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। उसके बाद वह विचलित नहीं होता, भले ही कैसे भी विपरीत संयोग हों। स्थितप्रज्ञ दशा वह खूब ही सदविवेक वाली जागृति की दशा है। स्थितप्रज्ञ दशा वाले का व्यवहार बहत अच्छा होता है। लोकनिंद्य नहीं होता लेकिन स्थितप्रज्ञ को मोक्ष में जाने के लिए बहुत लंबा रास्ता तय करना पड़ता है। स्थितप्रज्ञ दशा की तुलना में जनक विदेही की दशा बहुत उच्च थी। जब तक ऐसी मान्यता है कि 'मैं चंदभाई हूँ' तब तक स्थितअज्ञ दशा है। अक्रमज्ञान मिलने के बाद जब, 'मैं शुद्धात्मा हूँ', ऐसा हो जाता है, तब प्रज्ञा उत्पन्न होती है। जो स्थितप्रज्ञ से बहुत-बहुत आगे की है। यह क्षायिक सम्यक्त्व है। मिथ्यात्व दृष्टि पूर्णतः नष्ट हो जाती है। स्थितप्रज्ञ क्या खाते हैं ? क्या पीते हैं? कौन सी भाषा होती है उनकी? अरे, आत्मा खाता ही कहाँ है ? खाने वाला अलग ही है! ऐसी सूक्ष्म बात दादाश्री ने ही की है। मोह नष्ट होने के बाद स्थिरता आती है। मोह टूटना, वह तो स्थितप्रज्ञ दशा से भी उच्च दशा है, जिसके लिए अर्जुन ने कहा है, 'नष्टो मोह, स्मृतिलब्ध स्थितोस्मि'। वैकंठ में जाते-जाते बद्धि स्थिर हो जाती है, वह है स्थितप्रज्ञ दशा। स्थितप्रज्ञ दशा में अहंकार का अस्तित्व है क्या? अहंकार की उपस्थिति में संसार का सार-असार निकालकर बुद्धि स्थिर हो जाए तो वह है स्थितप्रज्ञ। उसे विवेक ही माना जाता है। उसमें राग-द्वेष रहितता नहीं होती लेकिन हर एक प्रश्न को हल कर सकता है। स्थितप्रज्ञ होने के बाद वीतरागता की तरफ का मार्ग मिलता है। स्थितप्रज्ञ दशा वाले में दया होती है, करुणा नहीं होती। साइन्टिस्ट रिसर्च (अन्वेषण) कैसे करते हैं ? बुद्धि से या प्रज्ञा से? 19
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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