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________________ आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध) प्रश्नकर्ता : दादा ऐसा कहते हैं कि 'इसमें तेरे आज्ञा पालन करने की बात नहीं है। तू निश्चय कर कि तुझे आज्ञा में रहना है, बस। बाकी सब मुझ पर छोड़ दे'। आप ऐसा कहते हैं न? दादाश्री : सिर्फ आज्ञा का पालन ही करना है। आज्ञा के अनुसार हुआ या नहीं, वह आपको नहीं देखना है। बस! पालन करना है, ऐसा तय करो। प्रश्नकर्ता : अतः यह जो निश्चय करने की बात है, उसमें हम कहते हैं कि 'तुझे कुछ करना नहीं है'। फिर वापस ऐसा भी कहते हैं कि 'निश्चय कर'। दादाश्री : वे तो शब्द हैं न, यों सिर्फ शब्द ही। ड्रामेटिक शब्द, उसमें कोई कर्ताभाव नहीं है। प्रश्नकर्ता : हाँ, यानी इसीलिए वह तो सिर्फ भाषा की बात हुई लेकिन यह जो निश्चय है, वह निश्चय कौन करता है? दादाश्री : वह खुद का ही हुआ है। यह जो प्रज्ञाशक्ति है न, वही यह निश्चय करती है। बस! प्रश्नकर्ता : लेकिन उसे जब ज्ञान नहीं था, तब अहंकार निश्चय करता था, तब प्रज्ञा नहीं करती थी। दादाश्री : ठीक है। वह अहंकार नहीं लेकिन अज्ञा करती थी। अब प्रज्ञा कर रही है। अज्ञानी के सभी निश्चय अज्ञा करती है और जिसे ज्ञान प्राप्त हुआ है, उसके प्रज्ञा करती है। अज्ञा और प्रज्ञा दो शक्तियाँ हैं। अज्ञा रोंग बिलीफ है और प्रज्ञा राइट बिलीफ है। प्रश्नकर्ता : वह निश्चय करती है ऐसा कहने के बजाय क्या ऐसा कहना चाहिए कि 'निश्चय रखना'? दादाश्री : करना या रखना, जिस भी शब्द से अपना मनचाहा सिद्ध होता है, वही करना है। शब्द चाहे कोई सा भी बोलो, 'करो या रखो', उससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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