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________________ आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध) बाद ही हम यह बात बताएँगे न, नहीं तो बताएँगे ही नहीं न! क्योंकि यह देह मुक्त होने वाले से बिल्कुल अलग है। खाने वाला, पीने वाला, रंगराग करने वाला, चाय-पानी पीने वाला, टेस्ट से पीने वाला, मूंछ पर हाथ फेरने वाला, सभी अलग हैं। जो बंधन में है, उससे भी वह अलग ही है। बंधा हुआ तो ऐसा कुछ करेगा ही नहीं न? बंधा हुआ तो 'बंधन' को जानता है। जो बंधन को जानता है और बंधन को अनुभव करता है, उसे कहते हैं, बंधा हुआ। ये सभी लोग तो बंधे हुए नहीं कहलाएँगे न? बंधे हुए यह जानते ही नहीं हैं। हम बंधे हुए हैं, ऐसा उन्हें भान ही नहीं है। यह जो स्थितप्रज्ञ शब्द है, वह व्यवहारिक शब्द है। बुद्धि इतनी अधिक स्थिर हो चुकी होती है कि चाहे कैसी भी मुश्किल आए लेकिन उसमें ज़रा सा भी नहीं डरता। बुद्धि का विभाग है वह। बुद्धि स्थितप्रज्ञ तक पहुँच चुकी है और प्रज्ञा अभी तक प्रकट नहीं हुई है। सभी जीवों की अज्ञ दशा है। निन्यानवे तक स्थितप्रज्ञ और प्रज्ञा है सौ पर कृष्ण भगवान ने जिस स्थितप्रज्ञ दशा का वर्णन किया था, वह प्रज्ञा से भी निम्न दशा है। प्रश्नकर्ता : स्थितप्रज्ञ निम्न दशा है? दादाश्री : प्रज्ञा से निम्न दशा है। स्थितप्रज्ञ दशा अर्थात् बुद्धि से होते, होते, होती जाती है। फिर वह बुद्धि भी कौन सी? अव्यभिचारिणी बुद्धि। कृष्ण भगवान ने दो प्रकार की बुद्धि के बारे में बताया था। व्यभिचारिणी और अव्यभिचारिणी। अव्यभिचारिणी बुद्धि स्थिर हो जाती है, अस्थिर तो है ही अभी। अस्थिर अर्थात् इमोशनल। स्थिर होती जाती है दिनों दिन। स्थिर होने के बाद जैसे संख्या में सतानवे के बाद अठानवे, निन्यानवे गिना जाता है और सौ को मुख्य चीज़ कहा जाता है। तब जाकर पूर्णाहुति होती है, हन्ड्रेड परसेन्ट, सेन्ट परसेन्ट है, ऐसा कहते हैं। यह जो स्थितप्रज्ञ दशा है, वह बुद्धि की स्थिरता का सेन्ट परसेन्ट है और प्रज्ञा तो है ही फुल चीज़, मूल वस्तु है।
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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