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________________ ४७६ आप्तवाणी-९ है मेरा और मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा समझने के लिए अथवा तो ऐसी यथार्थ जागृति में रहने के लिए इन सब प्रमाणों की ज़रूरत पड़ेगी न? दादाश्री : प्रमाण तो मुख्य चीज़ है। प्रश्नकर्ता : वे प्रमाण कौन-कौन से हैं, अंदर का समझने के लिए? दादाश्री : जिसमें अनेक चीजें इकट्ठी होकर कार्य हो वह सारा ही अपना नहीं है। तीन ही चीजें मिली और कार्य हुआ तब भी अपना नहीं है। दो चीजें इकट्ठी होकर कार्य हुआ तो भी अपना नहीं है। आम को छुरी से नहीं काटा और दाँत से काटा। हाँ, वह इन सब के मिलने पर हुआ इसलिए वह अपना नहीं है! बारीकी से समझना पडेगा न? ऐसे स्थूल रूप से समझने से चलेगा क्या? प्रश्नकर्ता : मूल वस्तु तो सूक्ष्मतम है। दादाश्री : हाँ, मूल वस्तु सूक्ष्मतम है और बात स्थूल करेंगे तो क्या होगा?! प्रश्नकर्ता : लेकिन यह नई ही बात बताई। दादाश्री : नई नहीं है, है ही पहले से यह ! यह तो तीर्थंकरों के पास था, पहले से ही था और आज भी है। आप अपने आपसे अपनी लॉ बुक से 'नया' कहो, तो उसका मैं क्या करूँ?! जितना अनुभव, उतना ही पोतापणुं का विलय किसी ने खुद की लॉ बुक से माना कि 'हम तो पूर्ण हो गए।' तब मैंने उनसे कहा, 'बिल्कुल भी पूर्ण नहीं हुए हो, बेकार कोशिश मत करना। अभी तो बहुत कुछ होना बाकी है। संपूर्ण होना क्या कोई लड्डू खाने का खेल है ?' फिर मुझसे कहते हैं, लेकिन अहंकार तो चला ही गया है।' मैंने कहा, 'नहीं गया है। पूरा-पूरा है ही। अभी तक जाँच नहीं की।'
SR No.034040
Book TitleAptvani 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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