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________________ [४] ममता : लालच २४५ कुसंग का रंग अनंत जन्मों से इसके कारण ही बिगड़ा हुआ है। खुद की ही जिंदगी मिट्टी में मिल जाती है और औरों की भी, साथवालों की भी मिट्टी में मिल जाती है। कुसंगों की वजह से यह सारा ताल बैठ गया है। अब एक बार ताल बैठ जाने के बाद गाँठे जाती नहीं हैं न! वे गाँठे इतनी बड़ी-बड़ी हो जाती हैं। इतनी छोटी सी गाँठ हो तो जा सकती है। इतना बड़ा लोहचुंबक हो, तो वह पिन को खींचता है लेकिन उससे बड़े लोहे को खींचने जाएँ तो? लोहचुंबक ही खिंच जाएगा। लोहचुंबक को पकड़कर रखेंगे तो अपना हाथ भी खींच ले जाएगा। कुसंग का तो ऐसा सब है। इसी वजह से शास्त्रकारों ने कहा है कि जहर खाकर मरना अच्छा, लेकिन कुसंग का संग नहीं लगना चाहिए ! उसके आवरण भारी उसे कोई लालच नहीं होता, ऐसा नहीं है। यानी ऐसे लोग तो जब से यहाँ पर आएँ तभी से मैं उन्हें कह देता हूँ कि, 'सीधा रहना। अनंत जन्मों से मार खाई है लेकिन फिर भी लालच नहीं जाता। यहाँ आने के बाद भी तेरा ठिकाना नहीं पड़े, तो किस काम का?' हमारी, 'ज्ञानीपुरुष' की वाणी वीतराग वाणी होती है. यानी वीतरागता के चाबुक होते हैं। वे लगते बहुत हैं, असर बहुत करते हैं, लेकिन दिखाई नहीं देते। लेकिन यह जो लालच का मुख्य अवगुण काम कर रहा है, वह तो 'ज्ञानी' के वाक्य को भी खा जाता है, पीसकर खा जाता है ! लालच! वह लालचरूपी अहंकार है न, वह टूटता नहीं है इन लोगों का! 'ज्ञान' देते हैं, तब यह अहंकार नहीं टूटता, यह भाग जीवित रहता है इसलिए फिर परेशानी बढ़ जाती है।
SR No.034040
Book TitleAptvani 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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