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________________ २४४ आप्तवाणी-९ दादाश्री : जब मार पड़ती है, तब दूसरा लालच याद आता है कि अब वह कर आऊँगा, इसलिए घाव भर जाता है। प्रश्नकर्ता : मतलब उसके पास घाव भरने के लिए कई दिशाएँ होती हैं! दादाश्री : हाँ, फिर भी यदि कभी वह शुद्धात्मा में रहे, आज्ञा का पालन करे, और दूसरी तरफ सभी चीज़ों को छोड़ दे तो ठीक हो जाएगा लेकिन यह तो उसे खुद को भी पता नहीं चलता कि मुझमें लालच है। भान ही नहीं होता न, ऐसा। अगर ऐसा भान होता तब तो वह खुद मुक्त नहीं हो जाता? यह तो हमारे दिखाने पर उसे कुछ दिखता है। वह तो ऐसा ही समझता है कि मैं 'समभाव से निकाल कर रहा हूँ। लोकनिंद्य कार्य करना और समभाव से निकाल करना, वे दोनों साथ में होते होंगे कभी? खुद की स्त्री के साथ हर्ज नहीं है लेकिन लोकनिंद्य कार्य करना और 'आज्ञा का पालन करता हूँ,' ऐसा मानना, इसे आज्ञा का दुरुपयोग करना कहेंगे। 'लास्ट' लेवल का (अंतिम दर्जे का) दुरुपयोग - जिसे सौ बार दुरुपयोग बोलें, ऐसा दुरुपयोग कहलाता है। दुरुपयोग तो ये साधारण लोग भी करते हैं और यह लालची तो आत्मघाती, खुद का ही घात कर रहा है। यदि पुण्यशाली होगा तो सावधान हो जाएगा, वर्ना नहीं हो पाएगा। सावधान होगा भी किस तरह ? क्योंकि उसमें उसे 'इन्टरेस्ट' आता है, इसलिए वापस वहाँ पर भ्रमित हो जाता है। यानी बीज गया नहीं है। बीज तो अभी पानी गिरते ही उग जाएगा! संयोग मिले नहीं है इसलिए। संयोग मिलते ही तुरंत फूटता है। हम समझते हैं कि यहाँ पर सबूत कुछ रहा नहीं है, सिर्फ बाड़ ही दिखाई दे रही है, गाँठे-वाँठे, पौधे, कुछ है ही नहीं, लेकिन अंदर गाँठे होती हैं। पानी मिलते ही फूटती हैं ! इसलिए कोई अभिप्राय नहीं देना चाहिए कि इसका कुछ कम हो गया है। यों कम होता ही नहीं है। कैसे हो सकेगा वह? यानी सभी का किनारा आएगा, लेकिन लालची का किनारा नहीं आएगा।
SR No.034040
Book TitleAptvani 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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